ग्वालियर, 20 दिसंबर (हि.स.)। भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में देश का सर्वाधिक प्रतिष्ठित महोत्सव “तानसेन समारोह” संगीत की नगरी ग्वालियर में इस साल 22 से 28 दिसम्बर तक आयोजित होगा। यह सालाना समारोह भारतीय संगीत की अनादि परंपरा के श्रेष्ठ कला मनीषी संगीत सम्राट तानसेन को श्रद्धांजलि व स्वरांजलि देने के लिये पिछले 98 साल से आयोजित हो रहा है। इस साल के तानसेन समारोह में देश के मूर्धन्य शास्त्रीय गायक पं. गणपति भट्ट हासणगि धारवाड़ को राष्ट्रीय तानसेन अलंकरण से विभूषित किया जाएगा।
जनसम्पर्क अधिकारी हितेन्द्र सिंह भदौरिया ने बुधवार को बताया कि तानसेन समारोह में अलंकरण समारोह 24 दिसंबर को होगा, जिसमें पं. गणपति भट्ट हासणगि धारवाड़ को सम्मानित किया जाएगा। उन्होंने बताया कि “तानसेन संगीत महफिल” और “ताल दरबार” नए आयाम के रूप में जोड़े गए हैं। तानसेन समारोह में 22 दिसम्बर को संगीत की नगरी ग्वालियर में 15 स्थानों पर एक साथ “तानसेन संगीत महफिल” और 26 दिसम्बर को ग्वालियर किले पर “ताल दरबार” की भव्य महफिल सजेगी। साथ ही पूर्व की तरह गान मनीषी तानसेन की जन्मस्थली बेहट व मुरैना जिले के प्रसिद्ध बटेश्वर मंदिर परिसर में समारोह के तहत संगीत सभाएँ सजेंगीं। इसके अलावा पूर्व रंग “गमक” का भी आयोजन होगा।हर साल की भाँति इस साल भी समारोह में वादी-संवादी व्याख्यान माला और कला प्रदर्शनी रंग संभावना का आयोजन भी होगा।
तानसेन समारोहः जब बचपन में बिछुड़े मित्रों का फिर से हुआ मिलन
तानसेन समारोह से जुड़ा एक प्रसंग यहां प्रस्तुत है। वल्लभ संप्रदाय के मूर्धन्य संत एवं कृष्ण भक्ति की गायकी में निपुण सूरदास और गान महर्षि तानसेन के बीच बचपन में ही घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। दोनों ने अपने जन्म स्थान ग्वालियर में ध्रुपद गायकी का ककहरा सीखा। सूरदास ने ग्वालियर के तत्कालीन महान संगीतज्ञ बैजू बाबरा से गुरू-शिष्य परंपरा के तहत ध्रुपद गायकी सीखी थी। समय के साथ सूरदासजी ने बृज की राह पकड़ी तो तानसेन राजा रामचंद्र की राजसभा बांधवगढ़ होते हुए आगरा पहुंचे और मुगल बादशाह अकबर के दरबार में नवरत्न में शामिल होकर सुर सम्राट तानसेन के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
पावन बृज की धरा पर कृष्ण भक्ति में डूबे सूरदास को वल्लभाचार्य जी ने अष्टछाप में सम्मिलित कर प्रतिष्ठित स्थान दिया। कालान्तर में वृद्धावस्था को प्राप्त कर चुके सूरदासजी एक दिन खड़ाऊ से खटपट करते और हाथ में लकुटिया थामे फतेहपुर सीकरी में मुगल बादशाह अकबर के दरबार में पहुंचे। तानसेन के जरिए अकबर ने सूरदास की महिमा सुन रखी थी। अकबर ने उन्हें जागीर और प्रतिष्ठित राजकीय पद देने का आग्रह किया। पर सूरदासजी ने इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। सूरदास ने कृष्ण भक्ति के कुछ पद गाकर अकबर को सुनाए और यह बूढ़ा बाबा खटपट करता हुआ पुन: गोकुल पहुंच गया।
तानसेन की बृज यात्रा के दौरान बचपन में बिछड़े मित्रों सूरदासजी और तानसेन का आत्मीय मिलन हुआ था। उस समय तानसेन ने भाव विभोर होकर सूरदास जी की प्रशंसा में एक दोहा सुनाया। जिसके बोल थे – किधौं सूर कौ सर लग्यौ, किधौं सूर की पीर । किधौं सूर कौ पद लग्यौ, तन-मन धुनत सरीर ॥
यह दोहा सुनकर सूरदासजी कहां रुकने वाले थे उन्होंने बड़े मार्मिक भाव से अपने बचपन के मित्र गान मनीषी तानसेन की प्रशंसा करते हुए कालजयी दोहा गाकर सुनाया। जिसके बोल हैं– विधना यह जिय जानिकैं, सेसहिं दिए न कान । धरा मेरू सब डोलते, सुन तानसेन की तान॥
तानसेन की बृज यात्रा के बारे में विन्सेण्ट स्मिथ ने अपनी पुस्तक “अकबर द ग्रेट मुगल” में उल्लेख किया है। साथ ही डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी द्वारा रचित “तानसेन” पुस्तक में भी सूरदास जी और सुर सम्राट तानसेन की मित्रता का उल्लेख मिलता है।