कागज का उद्योग बदल सकता है आम आदमी की तकदीर – एनी बिल्सबोल
उदयपुर, 20 नवंबर (हि.स.)। डेनमार्क की प्रसिद्ध हस्तनिर्मित कागज निर्माण विदूषी एनी बिल्सबोल का कहना है कि कागज बनाने का लघु उधोग भारत में किसी भी सामान्य परिवार का जीवन बदल सकता है।
वे विश्व धरोहर सप्ताह के उद्घाटन अवसर पर जर्नादनराय नागर विद्यापीठ के साहित्य संस्थान की ओर से प्रताप नगर स्थित विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित गोष्ठी को संबोधित कर रही थीं।
मुख्य वक्ता के रूप में उन्होंने अपने व्याख्यान में चीन, कोरिया, म्यांमार तथा भारत में कागज के इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डाला और कहा कि भारत के कागज उद्योग को अंग्रेजों ने नष्ट कर दिया। इसलिए इण्डिया इज ए वुण्डेड पेपर हिस्ट्री। एनी बिल्सबोल ने बताया कि चीन में झाई लुन को कागज का जनक माना जाता है। वह दिखने में किसी भारतीय बौद्ध भिक्षु जैसा है। इसलिए मान्यता है कि भारतीय बौद्ध भिक्षु कागज बनाने की विधा भारत से चीन ले गए।
उन्होंने कहा कि कागज के इतिहास के दो भाग हैं – 1. उत्पत्ति की कहानी व 2. परम्परा (परम्परा पूर्वी और पश्चिमी)। चीन में कागज चावल के तने और पत्तों तथा कच्चे बांस से बनता था। वहीं मिस्र में पेपरिस घास से। भारत में कागज वृक्ष के पत्तों की लुग्दी से बनता था। चीन में कागज ई. पू. द्वितीय शताब्दी में हान राजवंश के समय बनना प्रारम्भ हुआ। 1वीं सदी से इसके प्रमाण बड़े पैमान पर मिलते हैं। चीन से कागज यात्रा कर जापान, कोरिया और पश्चिम के देशों में पहुंचा। चीन में जेइजियांग प्रांत में फू-चुन नदी के किनारे 1700 वर्षों से कागज बनाया जा रहा है। इसके लिए वह चावल के तने और पत्तों तथा कच्चे बांस को चूने के साथ प्रोसस करते हैं।
बिल्सबोल ने जापान में कागज की परम्परा पर प्रकाश डालते हुए बताया कि वहां मान्यता है कि कागज की उत्पत्ति देवीय है और इसे पहली बार कोवा कामी गोजेन नामक देवी ने बनाया था। जापान में कागज शहतूत के पत्तों से बनाया जाता था। बिल्सबोल के अनुसार ऐसे हस्तनिर्मित कागज की तकनीक म्यांमार से मध्यकाल में भारत
पहुंची। भारतीय के लोग लेखनी की तरह कागज का सम्मान नहीं करते हैं। उन्होंने भारत में अनेक प्राचीन हस्तलिखित कागज के स्थलों का विस्तार से जिक्र किया। घोसुन्डा और लखावली के चित्र भी दिखाए और कहा कि भारत के बाजारों में बिक रहा तथाकथित हस्तनिर्मित कागज हाथ का बना नहीं है। उन्होंने यह बताया कि भारत कृषि प्रधान देश है, यहाँ लगभग पूरे देश में विशाल मात्रा में ऐसे पौधे, घास व झाड़ियां होती है, जिनमें भरपूर मात्रा में रेशा होता है, जो कागज बनने में उपयोगी है। भारत के विभिन्न हिस्सों में हस्तनिर्मित कागज के लघु उद्योग लगाये जाएं तो भारत को वैश्विक स्तर पर विशाल बाजार मिल सकता है।
साहित्य संस्थान के निदेशक प्रो. जीवनसिंह खरकवाल ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि भारत में कागज के लम्बे इतिहास की चर्चा करते हुये स्पष्ट किया कि वैदिक साहित्य पाणिनी की अष्टाधायी, चरक संहिता, बौद्ध साहित्य, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वराह मिहिर की वृहत् संहिता, कालीदास का साहित्य, रस रत्नाकर जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्राचीन भारत में कागज पर लिखे गये तथा कागज का इतिहास कम से कम पांचवी शताब्दी ई. पू. से प्रारम्भ होता है।
बैठक में प्रताप गौरव शोध केन्द्र के शोध अधीक्षक डॉ. विवेक भटनागर ने बताया कि इनमें से अनेक प्राचीन पाण्डुलिपियां कलकत्ता के आशुतोष संग्रहालय व ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, मैसूर के संग्रहालय में उपलब्ध है। प्रथम तमिल संगम में तिरूवल्लुवर की तमिल में लिखी पुस्तक तिरू कुरल के कागज में लिखने के प्रमाण मिलते हैं। इसका काल पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच का माना जाता है।
गोष्ठी की अध्यक्षता प्रो. प्रदीप त्रिखा ने की। गोष्ठी में सुखाड़िया विश्वविद्यालय के डॉ. मनीष श्रीमाली, अक्षय लोकजन के जयकिशन चौबे, भारतीय इतिहास संकलन समिति के क्षेत्रीय संगठन मंत्री छगनलाल बोहरा, प्रांतीय संगठन सचिव रमेश शुक्ला, जिला महामंत्री चैनशंकर दशोरा उपस्थित थे। अतिथियों का परिचय साहित्य संस्थान के डॉ. कुलशेखर व्यास ने कराया। संचालन नारायण पालीवाल व शोएब कुरैशी ने किया। अतिथियों का स्वागत विद्यापीठ के रजिस्ट्रार तरूण श्रीमाली ने किया।
राजस्थान विश्वविद्यालय के तमेघ पंवार तथा देश के विभिन्न भागों से 40 शोधार्थियों ने ऑनलाइन भाग लिया। धरोहर सप्ताह में दिनांक 24 नवम्बर 2024 तक प्रतिदिन सायं 6 से 8 बजे के बीच देश के मूर्धन्य विद्वानों द्वारा भारतीय ज्ञान परम्परा, संग्रहालय विज्ञान, समुद्री विज्ञान एवं पुरातत्व एवं भारत में कांच के इतिहास पर ऑनलाइन व्याख्यान के आयोजन होंगे।
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