‘उड़ता पंजाब’ बिना कट कैसे हुई पास? सेंसर बोर्ड के चौंकाने वाले फैसले!

फिल्म उद्योग में सेंसर बोर्ड की भूमिका का महत्व हमेशा से चर्चा का विषय रहा है। अक्सर फिर से सुर्खियों में आ जाने वाली फिल्मों को बैन करने की प्रक्रिया में न केवल फिल्म निर्माताओं को परेशानी का सामना करना पड़ता है, बल्कि दर्शकों के बीच भी उत्सुकता बढ़ जाती है। लेकिन, क्या सेंसर बोर्ड को वास्तव में किसी फिल्म को बैन करने का अधिकार है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें सिनेमैटोग्राफी एक्ट 1952 और उसके बाद के सुधारों की ओर देखना होगा।

सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी), जिसे आमतौर पर सेंसर बोर्ड कहा जाता है, भारत में बनने वाली फिल्मों को रिलीज से पूर्व सर्टिफिकेट प्रदान करने के लिए जिम्मेदार है। यह एक वैधानिक संस्था है जो केंद्र सरकार के अधीन काम करती है। इस बोर्ड का गठन 1952 में किया गया था, जिसके बाद से इसे कई बार पुनर्गठित किया गया है। फिल्म को सर्टिफिकेट देने की प्रक्रिया में कई चरण शामिल होते हैं, जिनमें फिल्म के विभिन्न पहलुओं की जांच की जाती है।

जब किसी फिल्म को सीबीएफसी के पास सर्टिफिकेशन के लिए भेजा जाता है, तो यह एक टीम द्वारा देखी जाती है, जिसमें विभिन्न पृष्ठभूमियों के सदस्य शामिल होते हैं। इनमें से प्रत्येक सदस्य अपनी राय देता है और यह तय किया जाता है कि फिल्म को किस श्रेणी में रखा जाएगा। हालांकि, यह ध्यान देने योग्य है कि सीबीएफसी को किसी फिल्म को सीधे तौर पर बैन करने का अधिकार नहीं है, बल्कि वह केवल सर्टिफिकेट देने से इनकार कर सकता है, जिससे फिल्म का रिलीज होना संभव नहीं होता है।

हाल में, ‘उड़ता पंजाब’ फिल्म के मामले ने इस नीति को उजागर किया जहां बोर्ड ने 89 सीन कट करने का निर्देश दिया, लेकिन कोर्ट ने इसे केवल एक कट के साथ रिलीज करने की अनुमति दी। इस स्थिति ने दर्शकों और फिल्म निर्माताओं के बीच संदेह को बढ़ाया। इससे स्पष्ट होता है कि सेंसर बोर्ड के निर्णयों में सार्वजनिक और कानूनी मान्यताएं कैसे प्रभावित होती हैं।

इसके अतिरिक्त, सेंसर बोर्ड की कार्यप्रणाली में बदलाव का भी समय आ गया है। इसमें न केवल युवा और विभिन्न पृष्ठभूमियों के सदस्य शामिल करने की आवश्यकता है, बल्कि बोर्ड को भी अपने दृष्टिकोण में लचीलापन लाने की आवश्यकता है। कई मामलों में, फिल्म निर्माताओं को अपनी जिम्मेदारी का ध्यान रखना चाहिए और दर्शकों की भावनाओं का सम्मान करते हुए सामग्री को पेश करना चाहिए। OTT प्लेटफॉर्म्स पर भी, जहां सामग्री की कोई सेंसरशिप नहीं होती, निर्माताओं को यह समझदारी से काम करना चाहिए कि उनके कंटेंट का किस तरह का प्रभाव पड़ सकता है।

इस बेहद जटिल और संवेदनशील विषय पर चर्चा जारी रहने की आवश्यकता है, ताकि फिल्म उद्योग में एक स्वस्थ संतुलन बना रहे और दर्शकों के अधिकारों की भी रक्षा हो सके। सेंसर बोर्ड की प्रभावशीलता और इसकी प्रक्रिया में सुधार से न केवल फिल्म निर्माताओं, बल्कि समाज के सभी वर्गों को लाभ होगा।