भारत की आत्मा उसकी मिट्टी, उसकी संस्कृति और उसकी मेहनतकश जनता में बसती है। यह वही भूमि है जिसने दुनिया को योग, आयुर्वेद, अध्यात्म और शिल्पकला का अनमोल उपहार दिया। लेकिन औपनिवेशिक काल ने हमें यह कड़वा सबक भी दिया कि जब कोई राष्ट्र विदेशी वस्तुओं पर निर्भर हो जाता है, तो वह धीरे-धीरे अपनी पहचान, अपनी आर्थिकी और आत्मगौरव खो बैठता है। यही कारण है कि आज भी “स्वदेशी” केवल एक आर्थिक नीति नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर भारत का मंत्र है, आत्मगौरव का प्रतीक है और राष्ट्र निर्माण की धड़कन है।
हो सकता है कि ये किसी को पहल छोटी लगे, किंतु है बहुत महत्वपूर्ण। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत पर 50 फीसदी टैरिफ लगाने के विरोध में पंजाब की लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी (एलपीयू) ने बड़ा फैसला लिया है। यूनिवर्सिटी ने कैंपस में अमेरिकी ड्रिंक्स पर पाबंदी लगा दी है। एलपीयू के संस्थापक कुलपति और राज्यसभा सांसद डॉ. अशोक कुमार मित्तल ने घोषणा की थी कि अगर अमेरिका यह टैरिफ लागू करता है, तो यूनिवर्सिटी अपने कैंपस में अमेरिकी ड्रिंक्स पर पूर्ण प्रतिबंध लगाएगी। 15 अगस्त को लिया गया यह संकल्प 27 अगस्त से लागू हो गया।
वास्तव में यह केवल पेय पदार्थों पर प्रतिबंध भर नहीं है। यह एक स्पष्ट संदेश है कि ‘आत्मसम्मान’ विदेशी ब्रांड्स के आगे झुक नहीं सकता। यह उस विचार का प्रतीक है कि यदि हम रोजमर्रा की जिंदगी में छोटे-छोटे बदलाव करें, तो वह एक व्यापक आंदोलन का रूप ले सकते हैं। आज 40 हजार से अधिक छात्रों वाली इस यूनिवर्सिटी ने यह साबित कर दिया कि “स्वदेशी” को अपनाने के लिए बड़े उद्योगपति या सरकार ही नहीं, बल्कि शैक्षणिक संस्थान और युवा भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत सहित उनसे पूर्व अब तक रास्वसंघ के जितने भी सरसंघचालक, सरकार्यवाह, सह सरकार्यवाह एवं अन्य प्रमुख पदाधिकारी एवं स्वयंसेवक रहे हैं और हैं, उनकी ओर से समय-समय पर “स्वदेशी” के महत्व पर जोर दिया जाता रहा है। संघ के एक वरिष्ठ स्वयंसेवक दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने तो “स्वदेशी जागरण मंच” जैसा एक अखिल भारतीय संगठन ही खड़ा कर दिया, जो पूरी तरह से भारत में बने सामान को उपयोग में लाने के लिए आग्रही है।
अभी देश की राजधानी दिल्ली में संघ की चली व्याख्यान माला में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने “स्वदेशी” की बात को फिर से दोहराया है। विज्ञान भवन में आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला ‘100 वर्ष की संघ यात्रा–नए क्षितिज’ के दूसरे दिन उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार अवश्य होना चाहिए, लेकिन स्वेच्छा से, बिना दबाव और बिना शर्तों के। उनका स्पष्ट संदेश है; “हम घर पर नींबू पानी बना सकते हैं, फिर हमें विदेशी कोल्ड ड्रिंक्स पीने की क्या जरूरत है?” यह कथन न केवल सांकेतिक है, बल्कि यह दिखाता है कि आत्मनिर्भरता की जड़ें हमारी साधारण जीवनशैली में छिपी है।
प्रधानमंत्री मोदी और “स्वदेशी” का मंत्र
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समय-समय पर “स्वदेशी” और आत्मनिर्भर भारत की पुकार को मजबूती से उठाते रहे हैं। हाल ही में उन्होंने अहमदाबाद में कहा, “Swadeshi should be everyone’s life mantra… पैसा किसी और का हो सकता है, लेकिन पसीना हमारा होना चाहिए।” उन्होंने व्यापारियों से अपील की कि अपनी दुकानों पर “Made in India” या “Swadeshi Only” बोर्ड लगाएं और ग्राहकों को प्रेरित करें कि वे केवल भारतीय वस्तुएँ ही खरीदें। त्योहारों के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट कहा कि “जब हम दीपावली के दिए, होली के रंग या जन्माष्टमी की सजावट स्वदेशी कारीगरों से खरीदते हैं, तो हम सिर्फ़ वस्तुएँ नहीं, बल्कि करोड़ों परिवारों की रोज़ी-रोटी खरीदते हैं।”
प्रधानमंत्री मोदी का यह दृष्टिकोण केवल ‘आत्मनिर्भरता’ तक सीमित नहीं है। यह दुनिया को यह संदेश भी देता है कि भारत अब केवल बाजार नहीं, बल्कि उत्पादन और नवाचार की शक्ति भी है।
स्वामी रामदेव का“स्वदेशी” का बिगुल
योगगुरु स्वामी रामदेव लंबे समय से “स्वदेशी आंदोलन” के सबसे मुखर चेहरों में रहे हैं। उन्होंने अनेक अवसरों पर कहा है, बल्कि वे एक न्यूज चैनल पर हर रोज सुबह इस बात को दोहराते हैं कि भारत की सच्ची उन्नति “स्वदेशी” की डगर पर चलने में ही है। वे कहते हैं, “विदेशी कंपनियां भारत से हजारों करोड़ का मुनाफा कमाकर बाहर ले जाती हैं, जबकि अगर यही पैसा भारत के किसानों और कारीगरों पर खर्च हो तो भारत दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बन सकता है।”
“पतंजलि” जैसे उपक्रम ने साबित किया है कि भारतीय उत्पाद न केवल गुणवत्तापूर्ण हो सकते हैं, बल्कि बाजार में विदेशी ब्रांड्स को चुनौती भी दे सकते हैं। यह “स्वदेशी” की व्यावहारिक शक्ति का जीवंत उदाहरण है।
उद्योग जगत और “स्वदेशी”
आज भारत के कई उद्योगपति और उद्यमी भी “स्वदेशी” और “मेक इन इंडिया” को समर्थन दे रहे हैं। फार्मा से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स और एग्रीकल्चर तक, भारतीय कंपनियां यह दिखा रही हैं कि वे न केवल घरेलू मांग पूरी कर सकती हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता रखती हैं। रक्षा क्षेत्र इसका बेहतरीन उदाहरण है। वर्ष 2013–14 में जहां भारत का रक्षा निर्यात 686 करोड़ था, वहीं 2024–25 तक यह बढ़कर लगभग 23,622 करोड़ तक पहुंच गया। यह 34 गुना वृद्धि केवल आत्मनिर्भरता का परिणाम नहीं, बल्कि नीति और संकल्प का प्रतीक है।
इसी प्रकार से भारत में कई स्वदेशी फार्मा कंपनियां सक्रिय हैं, जिनमें कुछ प्रमुख नाम सन फार्मास्यूटिकल्स, डॉ. रेड्डीज लैबोरेटरीज, सिप्ला लिमिटेड, टोरेंट फार्मास्यूटिकल्स, ज़ाइडस लाइफसाइंसेज, ल्यूपिन लिमिटेड, अरबिंदो फार्मा और ग्लेनमार्क फार्मास्यूटिकल्स हैं। ये कंपनियां जेनेरिक, ब्रांडेड और स्पेशलिटी दवाएं बनाती हैं और वैश्विक स्तर पर निर्यात भी करती हैं। भारत में विदेशी निवेश के लिए फार्मास्युटिकल शीर्ष दस आकर्षक क्षेत्रों में से एक है। भारत से फार्मास्युटिकल निर्यात दुनिया भर के 150 से ज़्यादा देशों तक पहुंचता है, जिनमें अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे अत्यधिक विनियमित बाज़ार शामिल हैं। भारत ने दुनिया भर के लगभग 114 देशों को लगभग 45 टन और 40 करोड़ टैबलेट हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की आपूर्ति की है।
भारत का औषधि और फार्मास्यूटिकल्स निर्यात वित्त वर्ष 2025 में 2,59,658 करोड़ रुपये (30.38 बिलियन अमेरिकी डॉलर) और वित्त वर्ष 2024 में 2,43,119 करोड़ रुपये (27.82 बिलियन अमेरिकी डॉलर) रहा। वित्त वर्ष 2024 के अप्रैल-मार्च के दौरान दवाओं और फार्मास्यूटिकल्स के निर्यात में 9.7 प्रतिशत की मजबूत वार्षिक वृद्धि दर्ज की गई। वित्त वर्ष 2024 (अप्रैल-मार्च) में भारत का दवाओं और फार्मास्यूटिकल्स निर्यात 27.82 बिलियन अमेरिकी डॉलर रहा। 2030 तक 65 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। 2047 तक यह 350 अरब डॉलर तक बढ़ सकता है। प्रधानमंत्री मोदी के 2047 तक विकसित भारत के विजन के तहत यह सेक्टर अहम भूमिका निभाएगा। इसी प्रकार से अन्य सेक्टर हैं।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य 1905 का वह दौर और “स्वदेशी” आंदोलन
हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि भारत का “स्वदेशी” आंदोलन कोई नया विचार नहीं है। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में जब बाल गंगाधर तिलक और अन्य नेताओं ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार शुरू किया, तब पहली बार “स्वदेशी” आंदोलन ने आम जनता के दिलों में जगह बनाई। सत्याग्रही और आन्दोलनकारी तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन पाल महाशय से लेकर महात्मा गांधी और इससे आगे एक लम्बी देश भक्तों की श्रंखला है जिन्होंने “स्वदेशी” को अपने समय में अत्यधिक गहराई से अपनाया और इसे जन आन्दोलन बना दिया था। उनका चरखा केवल कपड़ा बुनने का साधन नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता का प्रतीक था। गांधीजी ने कहा था, “स्वदेशी का अर्थ है कि मैं अपने आसपास के लोगों की जरूरतों की पूर्ति करूं, न कि विदेशी उत्पादों पर निर्भर रहूं।” यही विचार आज “आत्मनिर्भर भारत” के नारे में फिर से गूंज रहा है।
बड़े बदलाव हमेशा कई बार छोटे-छोटे कदमों से आते हैं
“स्वदेशी” केवल बड़े उद्योगों या सरकारी नीतियों तक सीमित नहीं है। यह विचार हमारे छोटे-छोटे दैनिक फैसलों में छिपा है-
• अगर हम चीनी लाइटों की जगह मिट्टी के दिए जलाएं, तो हम अपने कुम्हार को सशक्त बनाते हैं।
• अगर हम विदेशी ड्रिंक्स की जगह घर का बना शरबत पिएं, तो हम अपने किसानों की नींबू और फलों की फसल को समर्थन देते हैं।
• अगर हम त्योहारों पर भारतीय उपहार खरीदें, तो हम न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को बल देते हैं, बल्कि अपनी संस्कृति को भी जीवित रखते हैं।
• अगर हम दैनिक जीवन में उपयोग करने वाला सामान यह जानकर कि यह स्वदेशी कंपनी का है या नहीं, उसके बाद यदि विकल्प मौजूद हैं तब उस स्थिति में “स्वदेशी” खरीदें तो देश में बहुत बड़ा परिवर्तन आ सकता है।
जान लें “स्वदेशी” केवल अर्थव्यवस्था नहीं, यह “आत्मगौरव” का विषय भी है
“स्वदेशी” का असली सार अर्थव्यवस्था से कहीं गहरा है। यह “आत्मगौरव” का प्रश्न है। जब हम विदेशी वस्तुओं का मोह त्यागकर भारतीय उत्पाद अपनाते हैं, तो हम अपने ही लोगों की मेहनत का सम्मान करते हैं। “एलपीयू” का अमेरिकी ड्रिंक्स पर बैन इसी सोच की मिसाल है। यह दिखाता है कि छोटे निर्णय भी बड़े संदेश दे सकते हैं। यह हर भारतीय को सोचने पर मजबूर करता है, क्या हमें अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए भी विदेश की ओर देखना चाहिए?
यही है असल “राष्ट्र निर्माण” का मंत्र
आज भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती और सबसे बड़ा अवसर दोनों ही आत्मनिर्भरता है। ‘एलपीयू’ जैसी पहलें, आरएसएस सरसंघचालक भागवतजी का संतुलित दृष्टिकोण, प्रधानमंत्री मोदी की अपीलें और योग गुरु रामदेव बाबा की चेतना समेत इस विचार के अन्य जो अनुगामी हैं, ये सभी मिलकर वर्तमान में यही संदेश देते हैं कि “स्वदेशी” ही राष्ट्र निर्माण का मंत्र है। हर भारतीय यदि यह संकल्प ले कि वह अपने जीवन में यथासंभव “स्वदेशी” अपनाएगा, तो यह केवल भारत के संदर्भ में आर्थिक परिवर्तन नहीं होगा। यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण होगा, यह आत्मगौरव की पुनर्स्थापना होगी, यह भारत को फिर से विश्वगुरु बनाने की ओर कदम होगा।
कवि कहता है;
“स्वदेशी मंत्र है अपना, यही अभिमंत्र है अपना”
नहीं रूकना,सतत चलना, शुभंकर मंत्र है अपना ।
हमारी प्रेरणा भारत, है भूमि की करे पूजा
सुजल सुफला सदा स्नेहा, यही तो रूप है उसका
जिये माता के कारण हम, करे जीवन सफल अपना।।
स्वदेशी मंत्र है अपना, शुभंकर मंत्र है अपना…