राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है। संघ की आयु 100 बरस हो गई है। दुनिया के कई देशों में संघ की शाखाएं हैं। विश्व के तमाम विचारक संघ कार्य पर शोध कर रहे हैं। सबके निष्कर्ष अलग अलग हैं। किसी ने संघ में स्वयंसेवकों की लाठी देखी, कहा संघ और कुछ नहीं वस्तुतः लाठीधारी लोगों का खतरनाक संगठन है, तो किसी ने इसे भारतीय जनता पार्टी की शाखा बताया। अगले ने कहा यह, ”खुफिया संगठन” है। राज समाज के लिए खतरनाक है। विश्व में किसी भी ध्येयसेवी संगठन पर फर्जी आरोप नहीं लगे। संघ प्रतिष्ठित रहा। संघ पर प्रतिबंध भी लगे। 1975-77 के आपातकाल में हजारों स्वयंसेवक गिरफ्तार हुए। उन्होंने दुख झेले, ध्येय से विचलित नहीं हुए। उनमें मैं भी एक हूँ।
संघ के प्रति लोगों की जिज्ञासा बढ़ रही है। आखिरकार संघ कैसे जाना जाए? याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को तत्वज्ञान दिया था। बृहदारण्यक उपनिषद (अध्याय दो, ब्राह्मण 5) में ऋषि ने बताया, ”यह पृथ्वी सभी भूतों (मूल तत्व) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी के मधु।” शंकराचार्य का भाष्य है, ”जिस प्रकार एक छत्ता अनेक मधुकरों द्वारा तैयार किया जाता है, उस प्रकार सभी भूत इस पृथ्वी के मधु कार्य हैं। फिर सूर्य, चन्द्र और आकाश को भी मधु कार्य बताते हैं। फिर अग्नि के लिए कहते हैं, ”यह अग्नि समस्त भूतों का मधु है और समस्त भूत इस अग्नि के मधु।” अंत में कहते हैं, यह धर्म और सत्य समस्त भूतों का मधु है। फिर कहते हैं, ”यह मनुष्य भी समस्त भूतों का मधु है और सभी भूत इस मनुष्य के मधु।” मैं उसी तर्ज पर कहता हूँ कि भारत का सनातन धर्म सभी भूतों का मधुरस है और सभी भूत सनातन धर्म के मधुरस। पूरे आत्मविश्वास के साथ लिख रहा हूं, ”सनातन धर्म व हिन्दू जीवन रचना का सर्वोत्तम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रकट हुआ।”
संघ विचार आधारित संगठन है। 1925 में केशव बलिराम हेडगेवार के नेतृत्व में संघ की स्थापना हुई। राष्ट्र निर्माण की चुनौतियों पर चर्चा हुई और संघ की नींव पड़ गई। संघ का कार्य क्षेत्र विस्तृत होता गया। इसी के साथ मार्क्सवादी संगठन का भारत में उदय हो गया। विचारधारा के प्रति आग्रह में संघ व वामपंथ आमने सामने रहे। परिस्थितियां तेजी से बदल गईं। वामपंथ का वैज्ञानिक भौतिकवाद पिछड़ता चला गया। संघ में आत्मीयता थी। सांस्कृतिक आधार था।
विश्व विचारों से भरापूरा है। विचार विविधता भारतीय संस्कृति का आभूषण है। यहां अनेक विचार हैं। गौतम का ‘न्याय दर्शन’ है, कपिल का ‘सांख्य’ है। कणाद का वैशेषिक है, जैमिनि का ‘मीमांसा’ है और वादरायण का वेदान्त। यहां बुद्ध और जैन भी हैं। इस्लाम आने के साथ ही मजहबी विचारधारा भी आई। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बाद ईसाइयत का विचार भी फलाफूला लेकिन 1925 में कानपुर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के जन्म के साथ आए वैज्ञानिक भौतिकवादी विचार ने नई पीढ़ी को झकझोर दिया था। मार्क्सवाद परदेसी विचार था और संघ का राष्ट्रवाद स्वदेशी। दोनों विचारधाराओं में कांटे की टक्कर हुई। टक्कर पीछे 100 साल से जारी है। अब कम्युनिस्ट विचार के लोग पुरातात्विक मिथक जैसे हो गए हैं। संघ विचार के कार्यकर्ताओं ने उन्हें उनके गढ़ केरल में घुसकर चुनौती दी है। संघ कार्यकर्ताओं की हत्या भी हुई। हिंसक विचार का अंत हो गया। संघ बढ़ता गया।
वामपंथ का अस्त अस्वाभाविक नहीं है। अंधविश्वासी पंथिक विचार का आधुनिक विश्व में अब कोई भविष्य नहीं। मार्क्सवाद का सामाजिक दर्शन ईसाई पंथिक विचार का विरोधी था। मार्क्स ने इसी संदर्भ में ईश्वर को अफीम कहा था। ईसाईयत का ईश्वर मार्क्स की दृष्टि में अंधविश्वास था। वैज्ञानिक दृष्टिकोण में अंधविश्वास का स्थान नहीं होता। तर्क बुद्धि और अर्थशास्त्र से पैदा मार्क्सवाद भी मजहब बन गया। अब वाद-विवाद संवाद में उनकी आस्था नहीं। वामपंथी अपनी भारत विरोधी टिप्पणियों के लिए विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देते हैं। लेकिन दूसरे पक्ष के सही और संवैधानिक तथ्य को भी “थोपा जाना” बताते हैं। वंदेमातरम् राष्ट्रगीत है। वे कहते हैं कि इसका थोपा जाना अनुचित है। राष्ट्रभाव स्वाभाविकता है, वे कहते हैं कि राष्ट्रवाद का थोपा जाना असहिष्णुता है। राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की निष्ठा अपरिहार्य है। वे इसे भी थोपे जाने का आरोप लगाते हैं। उनकी प्रकृति पंथिक अंधविश्वासी है। संघ भारत के परम वैभव का स्वप्न दृष्टा है।
चीन का हमला हुआ। यह आज भी भारत के मन पर गहरा जख्म है। कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर कम्युनिस्ट चीन और अपने भारत की निष्ठा को लेकर द्वन्द्व था। पार्टी टूट गई। चीन प्रिय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट हो गए और शेष भारतीय कम्युनिस्ट। यों यहां कम्युनिस्ट विचार के दो दर्जन से ज्यादा संगठन हैं। नक्सलबाड़ी रक्तपात से निकले समूह नक्सलपंथी या माओवादी कहे जाते हैं। संसदीय जनतंत्र में विश्वास न करने वाले समूह बंदूक विश्वासी है। दूसरों को फासिस्ट बताने वाले वाम समूह ने 1975 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की फासिस्ट तानाशाही का समर्थन किया था। बीस माह के आपातकाल में पूरा देश यातनागृह था। तब भी कम्युनिस्ट फासिस्ट सत्ता के समर्थक थे। कम्युनिस्ट श्रीमती सोनिया गांधी के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में भी थे। कहने को इस गठबंधन का ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ था लेकिन वस्तुतः यह प्रच्छन्न सत्ता भागीदारी की तिकड़म थी। उन्होंने अपनी शक्ति का दुरूपयोग किया। वे सत्ता को हिलाते थे, सत्ता हिलती थी। वे अपने विचार थोपते थे। संप्रग सिर झुकाने को विवश था। संघ राजनीति से अलग अपने ध्येय में लगा रहा।
2008 में वाम बाएं मुड़ गये। वे अमेरिकी परमाणु करार के विरोधी थे। उन्होंने संभवतः पहली दफा ‘राष्ट्रहित’ शब्द का प्रयोग किया कि राष्ट्रहित में यह कार्रवाई आगे नहीं बढ़नी चाहिए। तब पश्चिम बंगाल बचा था। वाम हिंसा और कुशासन से पीड़ित बंगाली जनसमुदाय ने उन्हें खारिज किया। अब वह किसी एक सहयोग से फिर से अखिल भारतीय होने के प्रयास में थे, लेकिन उनसे यारी को कोई तैयार नहीं हुआ। उनकी विदाई हो गई है। तो भी तमाम राष्ट्रीय जिज्ञासाएं हैं। मसलन उन्होंने गांधी का विरोध क्यों किया? उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस का समर्थन क्यों नहीं किया? उन्होंने 1857 को स्वाधीनता संग्राम क्यों नहीं माना? आपातकाल का समर्थन क्यों किया? उन्होंने पूर्वज आर्यों को विदेशी सिद्ध करने में ही सारी बौद्धिक शक्ति क्यों लगाईं? सवाल और भी हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बिना सदस्यता पर्ची ही दुनिया का सबसे बड़ा संगठन बन गया। यह राष्ट्रीय होकर भी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में है। कम्युनिस्ट अंतरराष्ट्रीय होकर भी क्यों अभिशप्त हैं?
संघ के स्वयंसेवक अपने दैनिक कार्यक्रमों में राजनैतिक नारेबाजी नहीं करते। उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है। हम सब राष्ट्र के ही भाग हैं। देश में कई बार राष्ट्रीय आपदाएं आईं। गुजरात में भूकंप हो, दक्षिण भारत में सुनामी हो, ओड़िसा में तूफान हो, केदारनाथ की त्रासदी हो, 1962, 1971 आदि वर्षों का युद्धकाल हो, संघ के स्वयंसेवक ऐसे संकट के समय सेवाभाव लेकर सक्रिय रहे। संघ हिन्दू और हिन्दुत्व का सम्पूर्ण अधिष्ठान लेकर सक्रिय है। राष्ट्रजीवन में 100 बरस बहुत ज्यादा नहीं, लेकिन यह अवधि बहुत कम भी नहीं कही जा सकती। देश के सभी घरों में बिजली पानी है। 100 बरस की सेवा का अनुभव कुछ और विशिष्ट गढ़ने में लगाया जा सकता है। भारत को भारत की नियति तक ले जाना हम सबका कर्तव्य है। मैं इस संगठन का 60 वर्षीय स्वयंसेवक अपने में गर्व का अनुभव करता हूँ।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)