भारत अब केवल अपनी जैव विविधता की धरोहर पर गर्व करने वाला देश नहीं रह गया है, उसने उस धरोहर को विज्ञान, नवाचार और आत्मनिर्भरता की शक्ति में बदलना शुरू कर दिया है। देश में जैव प्रौद्योगिकी अर्थव्यवस्था का नया इंजन बन रही है। पर्यावरणीय संतुलन, रोजगार सृजन और सामरिक स्वतंत्रता का भी प्रमुख आधार बनती जा रही है। हाल ही में केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने बायोई3 नीति के अंतर्गत उच्च-निष्पादन वाले जैव-विनिर्माण प्लेटफार्मों का शुभारंभ किया। एक नजरिए से देखें तो यह कदम स्पष्ट संकेत देता है कि भारत 21वीं सदी में केवल सूचना प्रौद्योगिकी या अंतरिक्ष विज्ञान तक सीमित नहीं रहेगा, यह जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी महाशक्ति बनने का इरादा रखता है।
समीक्षात्मक रूप से देखें तो दुनिया के कई देशों के बीच भारत की सबसे बड़ी ताकत उसकी जैव विविधता है। यह विश्व के 17 मेगाडायवर्स देशों में शामिल है। यहां लगभग पैंतालीस हजार से अधिक पौधों की प्रजातियाँ और नब्बे हजार से अधिक पशु प्रजातियाँ पाई जाती हैं। हिमालय की जड़ी-बूटियों से लेकर अंडमान-निकोबार के समुद्री संसाधनों तक, यह जैव संपदा बायोटेक्नोलॉजी के लिए अमूल्य स्रोत है। यही कारण है कि कृषि, औषधि, खाद्य प्रसंस्करण और समुद्री अनुसंधान जैसे क्षेत्रों में भारत तेजी से अग्रणी भूमिका निभा रहा है। परंपरागत आयुर्वेद और औषधीय पौधों का ज्ञान आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के साथ मिलकर वैश्विक स्वास्थ्य समाधान प्रस्तुत कर रहा है।
इस क्षेत्र में भारत की प्रगति पिछले एक दशक में असाधारण रही है। 2014 में देश की जैव-अर्थव्यवस्था लगभग दस अरब डॉलर के आसपास थी। 2023 तक यह बढ़कर डेढ़ सौ अरब डॉलर तक पहुंच गई और मार्च 2025 तक इसका आकार लगभग एक सौ पैंसठ अरब डॉलर हो गया। यह अब भारत की जीडीपी में चार प्रतिशत से अधिक का योगदान करती है और पिछले चार वर्षों में औसतन अठारह प्रतिशत की दर से बढ़ी है। सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक इसे तीन सौ अरब डॉलर तक ले जाया जाए। यह लक्ष्य अब अवास्तविक नहीं लगता क्योंकि बायोटेक स्टार्टअप्स की संख्या ही गवाही दे रही है। जहां 2014 में इनकी संख्या मात्र पचास थी, वहीं 2024 तक यह बढ़कर दस हजार से अधिक और 2025 में ग्यारह हजार तक पहुँच गई। इन स्टार्टअप्स को देश भर में सौ से अधिक इनक्यूबेटर और बीआईआरएसी जैसी संस्थाओं का समर्थन प्राप्त है।
इस सब के सार्थक परिणाम यह है कि भारत अब वैश्विक मानचित्र पर भी अपनी छाप छोड़ रहा है। विश्व की 121 प्रमुख जैव कंपनियों में से 21 भारत में स्थित हैं। यह उपलब्धि उस देश के लिए विशेष महत्व रखती है जिसे कभी तकनीकी अनुसरणकर्ता माना जाता था। हैदराबाद का नाम दुनिया के सात सबसे बड़े लाइफ-साइंसेज क्लस्टर्स में शामिल हो चुका है जहां पचपन हजार करोड़ रुपये से अधिक का निवेश आया है और दो लाख से अधिक नए रोजगार बने हैं। कर्नाटक राज्य ने अकेले ही तीस अरब डॉलर का बायो-आर्थिक योगदान दिया है और निकट भविष्य में तीस हज़ार अतिरिक्त रोजगार सृजित करने का लक्ष्य रखा है। असम पहला राज्य है जिसने बायोई3 पहल को पूरी तरह से अपनाया है और पूर्वोत्तर को जैव प्रौद्योगिकी का नया केंद्र बनाने की दिशा में कदम बढ़ाया है।
यहां समझ लीजिए कि बायोई3 नीति का प्रभाव केवल आर्थिक नहीं है, यह सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से भी उतना ही महत्वपूर्ण है। स्मार्ट प्रोटीन, टिकाऊ कृषि, कार्बन कैप्चर, समुद्री जैव प्रौद्योगिकी और कोशिका एवं जीन थेरेपी जैसे क्षेत्र न केवल वैज्ञानिक अनुसंधान को प्रोत्साहित करेंगे बल्कि भारत को आयात पर निर्भरता से भी मुक्त करेंगे। पेट्रोलियम आयात को घटाने के लिए ईथेनॉल मिश्रण का प्रयास इसका उदाहरण है। 2014 में पेट्रोल में इथेनॉल मिश्रण मात्र डेढ़ प्रतिशत था जो 2024 में पंद्रह प्रतिशत तक पहुँच गया। इसके कारण लगभग सत्रह मिलियन टन कच्चे तेल के आयात से बचाव हुआ और करीब एक लाख करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा की बचत हुई। इस साल के अंत के बाद जो आंकड़े आएंगे, उम्मीद है कि यह पंद्रह प्रतिशत से बढ़कर ही आएंगे।
जैव प्रौद्योगिकी का महत्व कोविड-19 महामारी के दौरान और भी स्पष्ट हो गया जब भारत ने रिकॉर्ड समय में वैक्सीन विकसित कर पूरी दुनिया को आपूर्ति की। जिन देशों ने समय पर वैक्सीन प्राप्त की, उनमें भारत की भूमिका निर्णायक रही। इससे यह स्पष्ट हो गया कि जैव प्रौद्योगिकी आज विज्ञान से आगे भू-राजनीतिक शक्ति का भी स्रोत बन चुका है। फिर भी चुनौतियाँ कम नहीं हैं। अभी भी वेक्टर और प्लास्मिड जैसे आवश्यक बायोलॉजिकल इनपुट्स का उत्पादन देश में सीमित है। प्रोबायोटिक्स जैसे क्षेत्रों में नियामकीय बाधाएँ उद्यमियों को परेशान करती हैं। अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए निजी निवेश और विदेशी सहयोग को और बढ़ाना होगा। कॉन्ट्रैक्ट ड्रग मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में भारत के सामने बड़ा अवसर है परंतु चीन जैसे देशों से प्रतिस्पर्धा के लिए लागत और नीति में लचीलापन आवश्यक होगा।
शिक्षा और उद्योग के बीच सहयोग को गहरा करना भी अत्यंत आवश्यक है। विश्वविद्यालयों और अनुसंधान केंद्रों में जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे तभी सार्थक बनाया जा सकता है जब वह उद्योग और समाज तक पहुँचे। स्टार्टअप्स को केवल शुरुआती समर्थन ही नहीं, बल्कि दीर्घकालिक निवेश, वैश्विक साझेदारियाँ और मजबूत नैदानिक मान्यता भी चाहिए। सरकार का कार्य बीज बोना है परंतु उद्योग जगत को उसे फलने-फूलने योग्य बनाना होगा।
वर्तमान में भारत की जैव विविधता, उसकी पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली और आधुनिक वैज्ञानिक क्षमता मिलकर एक ऐसा परिदृश्य रच रहे हैं जिसमें भारत आत्मनिर्भर होगा ही साथ ही वह वैश्विक नेता भी बनेगा। अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों के लिए भारत टिकाऊ कृषि, सस्ती दवाएं और पर्यावरणीय समाधान उपलब्ध कराएगा। इससे भारत की छवि केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी तक सीमित नहीं रहेगी बल्कि वह अंतरराष्ट्रीय सहयोग का अग्रणी देश भी बनेगा।
यदि हम अपनी विविधता को जिम्मेदारी से प्रौद्योगिकी और नवाचार में बदल सकें तो जैव प्रौद्योगिकी वास्तव में आत्मनिर्भर और विकसित भारत की आधारशिला बन सकती है। जैसे 1990 के दशक में सूचना प्रौद्योगिकी ने भारत की वैश्विक छवि को बदला था, वैसे ही आज जैव प्रौद्योगिकी उसी परिवर्तन का नया साधन बनने जा रही है। आने वाले वर्षों में बीटी यानी बायोटेक्नोलॉजी वह शब्द होगा जो भारत की विकासगाथा को परिभाषित करेगा। यह केवल अर्थव्यवस्था को नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, कृषि, पर्यावरण और कूटनीति सभी को प्रभावित करेगा। इन सभी तथ्यों के प्रकाश में आप कह सकते हैं कि स्वतंत्रता की शताब्दी की ओर बढ़ते भारत के लिए यही वह क्षेत्र है जो विकसित भारत के सपने को साकार करने की शक्ति रखता है।
(लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)