भारत की सामाजिक चेतना कभी गांधी, नेहरू, भगत सिंह, अंबेडकर और सुभाष जैसे महापुरुषों की कहानियों से गढ़ी जाती थी। आज वही जगह सोशल मीडिया के “वायरल सितारों” ने ले ली है। लाखों फॉलोअर्स और लाइक्स वाले ब्लॉगर और रील-निर्माता युवाओं के नए रोल मॉडल बन बैठे हैं। मनोरंजन के नाम पर यह संस्कृति असली आदर्शों को धुंधला कर रही है। सवाल यही है कि क्या हमारी अगली पीढ़ी त्याग और संघर्ष की विरासत को याद रखेगी या सिर्फ़ ट्रेंडिंग वीडियो तक सीमित रह जाएगी?
कभी इस देश की आत्मा अपने महापुरुषों के विचारों और संघर्षों में बसती थी। हमारे आदर्श थे महात्मा गांधी, जिन्होंने सत्य और अहिंसा से साम्राज्य को हिला दिया। भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद, जिन्होंने प्राणों की आहुति देकर युवाओं को साहस और बलिदान का संदेश दिया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जिनकी गूंज आज भी “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा” में सुनाई देती है। डॉ. भीमराव अंबेडकर, जिन्होंने आधुनिक भारत के संविधान की नींव रखी। चौधरी छोटूराम, जिन्होंने किसानों और मजदूरों की आवाज़ बुलंद की और समाज में न्याय की लड़ाई लड़ी। यह वे लोग थे जो संघर्ष, त्याग और विचारशीलता के प्रतीक बने।
गाँव की चौपाल से लेकर शहर की बैठकों तक, हर सभा और हर संस्थान में इन्हीं महापुरुषों की तस्वीरें लगती थीं। बच्चे इन्हीं के किस्से सुनकर बड़े होते थे। समाज में जो भी व्यक्ति आगे बढ़ना चाहता, वह इन आदर्शों से प्रेरणा लेता। त्याग, अनुशासन, साहस और समाजसेवा रोल मॉडल की परिभाषा हुआ करती थी। रोल मॉडल होना मतलब था दूसरों को प्रेरित करना, समाज को दिशा देना और भविष्य की पीढ़ी को ऊँचाइयों तक पहुँचाना।
समय बदल गया। तकनीक और सोशल मीडिया ने पूरी तस्वीर उलट दी। अब रोल मॉडल का अर्थ समाज में गहरी छाप छोड़ने वाला महापुरुष नहीं, बल्कि वह व्यक्ति हो गया है जो कैमरे पर सबसे ज़्यादा शोर मचाए, जो सबसे अजीब हरकतें करे और जिसकी वीडियो सबसे ज़्यादा “वायरल” हो जाए। आज जिनके नाम युवा ज़ुबान पर हैं, वे न तो किसी आंदोलन के नायक हैं और न ही किसी बड़े विचारधारा के संवाहक। वे हैं “गंवार फैमिली ब्लॉग”, “टिंकू सूटों आली”, “ढिमाकाणा सिंह कूल्हे मटकाण आला” जैसे किरदार, जो केवल हंसी-मज़ाक, तड़क-भड़क या दिखावे के दम पर मशहूर हो गए।
विडंबना यह है कि लोग इन्हें देखकर अपना समय, ऊर्जा और कभी-कभी अपनी सोच भी खर्च कर देते हैं। गाँव-गाँव और गली-गली में आज बच्चे और युवा इन्हीं यूट्यूब चैनलों, टिकटॉक-स्टाइल रीलों और इंस्टाग्राम लाइव वालों को अपने आदर्श मानने लगे हैं। जहाँ पहले बच्चे कहते थे कि वे बड़े होकर भगत सिंह या अंबेडकर जैसे बनना चाहते हैं, वहीं अब बहुत से बच्चे कहते मिलेंगे कि वे “यूट्यूबर”, “ब्लॉगर” या “इंफ्लुएंसर” बनना चाहते हैं।
सोशल मीडिया का यह चलन केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं है। यह धीरे-धीरे हमारे समाज की सोच और संस्कारों को प्रभावित कर रहा है। जब कोई महिला सिर्फ़ ध्यान खींचने के लिए अपने निजी रिश्तों को पब्लिक प्लेटफॉर्म पर प्रदर्शित करती है, जब पति-पत्नी की नोंकझोंक मनोरंजन बन जाती है, जब “लुगाई लुगाई को अपणा खसम बताण लागी” जैसी बातें ट्रेंड करने लगती हैं, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा मनोरंजन और मज़ाक के नाम पर गंभीर मूल्यों से दूर होता जा रहा है।
यह बदलाव खतरनाक इसलिए है क्योंकि समाज वही बनता है जैसा वह अपने आदर्श चुनता है। अगर रोल मॉडल ऐसे लोग होंगे जो सिर्फ़ ताली और व्यूज़ के लिए अजीबोगरीब हरकतें करते हैं, तो आने वाली पीढ़ी त्याग और संघर्ष की जगह केवल सस्ते लोकप्रियता के रास्ते तलाशेगी। असली मेहनत, पढ़ाई, चिंतन और सामाजिक योगदान हाशिए पर चला जाएगा।
यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इस ट्रेंड का एक आर्थिक पहलू भी है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने लोकप्रियता को सीधा पैसे से जोड़ दिया है। जिसके वीडियो ज़्यादा चलेंगे, वह कमाई भी ज़्यादा करेगा। इस कारण लाखों युवा बिना सोचे-समझे इसी राह पर दौड़ पड़े हैं। वे समझते हैं कि समाज की सेवा करने से ज़्यादा फायदेमंद है एक मज़ाकिया वीडियो बनाना। यही कारण है कि महापुरुषों की जीवनी पढ़ने वाले युवाओं की संख्या घटती जा रही है, जबकि “कंटेंट क्रिएटर” बनने वाले युवाओं की भीड़ बढ़ती जा रही है।
लेकिन क्या यह स्थिति स्थायी है? क्या सचमुच समाज आदर्शों से इतनी जल्दी विमुख हो जाएगा? इसका उत्तर इतना सरल नहीं है। इतिहास गवाह है कि हर समाज में एक समय ऐसा आता है जब मूल्य खोखले लगने लगते हैं और दिखावा ज़्यादा प्रभावी हो जाता है। अंततः वही समाज आगे बढ़ता है जो अपने सच्चे आदर्शों को याद रखता है। भारत जैसे देश में, जिसकी आत्मा स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक न्याय की लड़ाई से गढ़ी गई है, वहाँ के लोग सदा के लिए महापुरुषों को भूल नहीं सकते।
ज़रूरत है एक संतुलन बनाने की। मनोरंजन और तकनीक जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन इन्हें आदर्श नहीं बनाया जा सकता। रोल मॉडल वही हो सकते हैं जो समाज को आगे ले जाएँ, जो इंसानों में विश्वास और प्रेरणा जगाएँ, जो भविष्य की पीढ़ी को त्याग, साहस और सेवा का रास्ता दिखाएँ। आज भी ऐसे लोग हमारे बीच मौजूद हैं- वैज्ञानिक, शिक्षक, किसान, सैनिक, डॉक्टर, सामाजिक कार्यकर्ता- जो चुपचाप अपनी मेहनत और ईमानदारी से देश को आगे बढ़ा रहे हैं। समाज को चाहिए कि वह इनकी कहानियों को बच्चों और युवाओं तक पहुँचाए।
मीडिया और शिक्षा जगत की भी जिम्मेदारी है कि वे केवल सस्ते मनोरंजन को मंच न दें, बल्कि असली नायकों की गाथाएँ उजागर करें। स्कूलों और कॉलेजों में महापुरुषों की जीवनी को फिर से पढ़ाया जाए, स्थानीय स्तर पर समाज सेवियों और कर्मठ लोगों को सामने लाया जाए। तभी हम उस खोए हुए संतुलन को वापस पा सकेंगे जहाँ मनोरंजन अपने स्थान पर रहे और आदर्श अपने स्थान पर।
आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं और अपने पूर्वजों की विरासत को याद करते हैं, तो साफ़ दिखता है कि हमें जिन महापुरुषों ने यह देश और समाज दिया, वे किसी रील, किसी ट्रेंड और किसी तात्कालिक लोकप्रियता का हिस्सा नहीं थे। उन्होंने कठिन रास्ता चुना, संघर्ष किया और अपने जीवन को समाज और राष्ट्र के नाम कर दिया। उनकी तुलना में आज के “ट्रेंडिंग सितारे” बहुत हल्के और अस्थायी हैं।
समाज को यह समझना होगा कि रोल मॉडल केवल वे नहीं होते जिनके लाखों फॉलोअर्स हों, बल्कि वे होते हैं जो अपने जीवन से, अपने विचारों से और अपने संघर्ष से दूसरों को सही दिशा दिखाते हैं। अगर हम इसे समझ पाएँ, तो शायद फिर से हमारी अगली पीढ़ी भगत सिंह, अंबेडकर और छोटूराम जैसे आदर्शों को अपना मार्गदर्शक बनाएगी, न कि “कूल्हे मटकाण” वाले किसी ब्लॉगर को।
(लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)